शाम के साए बढ़ रहे थे ..डूबते सूरज की किरणों ने आसमान का
किनारा नारंगी बना रखा था ..परिंदों को अपने अपने ठिकानो पर
पहुचने की जल्दी थी
..काश मै भी एक परिंदा होती हर फ़िक्र और
गम से आज़ाद, खुले आसमान में उडती फिरती
रंजो गम का सूरज ढलता ही नही
अब मंजर ये दर्द का बदलता ही नही
यहाँ हर सू है दर्दो गम के अँधेरे
कोई रोशन चराग जलता ही नही
नए तूफान का आगाज़ है शायद
ये कैसा मौसम है जो
टलता ही नही