Monday, August 30, 2010

कितने चुपचाप से लगते है शजर शाम के बाद


उसने देखा न कभी एक नजर शाम के बाद
कितने चुपचाप से लगते है शजर शाम के बाद

गर जानना हो हाले दिल मेरा ऐ सनम
देखना चाँद के दर्पण में मुझे शाम के बाद

इतने चुप की रास्ते को भी नहीं याद होगा
छोड देगे किसी रोज ये नगर शाम के बाद

शाम से पहले मस्त परिंदे अपनी उड़ानों में
छुप जाते है इन धोसलो में वो शाम के बाद

तुमने सूरज कभी देखा नहीं इस रात का दर्द
कितने बेरंग से लगते हैं शहर शाम के बाद

लौट के आएगा वो जरूर किसी रोज ‘अनु’
आस पर खोल के रखते है दर शाम के बाद





Thursday, August 12, 2010

चाँद तेरी याद के अभी तो ढले ही नहीं





माना की आँख में नींद के सिलसिले नहीं
शिकस्त खवाब के मुझमे अब हौसले नहीं

ये खबर मेरे दुश्मनों ने दी होगी तुमको
वो आये आके चलेगये और मिले भी नहीं

कौन है वो जो करता है अधेरो की बात 
चाँद तेरी याद के अभी तो ढले ही नहीं

अभी से हाथ तेरे थकने लगे है दिलदार
अभी तो जख्म जिगर के मेरे सिले ही नहीं

ना दबाव चाहत को की दिल में ही रह जाए
गुल तो अपनी मोहोब्बत के अभी खिले ही नहीं