Wednesday, July 28, 2010

दिल की तासीर बड़ी अजब सी पाई मैंने


 

 

 

 

 

 

 

  

 

 

स्याह जुल्फों से शब् ए बज्म सजाई मैंने 

आइये पलकों की कालीन बिछाई मैंने 

रंग-चाहत, पैरहन-वफ़ा, तड़प की सीरत   

दिल की तासीर बड़ी अजब सी पाई मैंने 

शब् खयालात में जलते रहे एहसास कई 

सुबहो तक शम्मा तलक भी न जलाई मैंने

 पुर सुकूं नैन, खम ए ज़ुल्फ़, महकती आगोश 

उलझ के इनमे जिंदगी सुलझाई मैंने

Thursday, July 22, 2010

मैंने जो खाई कसमे उसे निभाती चली गई


जो वादे किये थे तुमने उसे भुला दिया
मैंने जो खाई कसमे उसे निभाती चली गई
नहीं भूल पाई हूँ वो तेरे प्यार की गर्मी
वो नमी होठो की सांसो को महकती चली गई
चाहती तो तोड़ देती रस्मो की जंजीरों को
पर प्रीत की डोर में खुद को उलझती चली गई
अब क्या मै तुझसे वफाओ का जिक्र करू
मै दीवानी हो खुद को ही आजमाती चली गई
तुझसे बिछड कर मै भी जी ना पाऊँगी
पर हवाए मुझे हुक्मे जुदाई सुनती चली गई

मैंने जो खाई कसमे उसे निभाती चली गई


जो वादे किये थे तुमने उसे भुला दिया
मैंने जो खाई कसमे उसे निभाती चली गई

नहीं भूल पाई हूँ वो तेरे प्यार की गर्मी
वो नमी होठो की सांसो को महकती चली गई

चाहती तो तोड़ देती रस्मो की जंजीरों को
पर प्रीत की डोर में खुद को उलझती चली गई

अब क्या मै तुझसे वफाओ का जिक्र करू
मै दीवानी हो खुद को ही आजमाती चली गई

तुझसे बिछड कर मै भी जी ना पाऊँगी
पर हवाए मुझे हुक्मे जुदाई सुनती चली गई

Sunday, July 11, 2010

गीली मिट्टी कि खुशबु

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मुझे गीली मिट्टी कि खुशबु बहुत अच्छी लगती है गीली मिट्टी यानि बारिश के बाद कि महक सोंधी सोंधी महक ये दिलो दिमाग पर अजब सा जादू करती है बारिश ,बारिश कि हलकी हलकी बुँदे , आसमान सफ़ेद और सुरमई बादलों से पूरी तरह ढका और हर तरफ बारिश कि सोंधी भीनी भीनी खुशबु ऐसी खुशबु इंसान के दिलो दिमाग पर छा जाती है बारिश कि ठंडी मीठी बुँदे और उनकी आवाज एक संगीतमय समा सा बनाती है तेज और हल्की बूंदों का जादू ........कच्ची मिट्टी पर ,पक्की सडक पर ,काँच कि खिड़की पर ,टिन कि छत पर ,फूलो पर , पत्तों पर ,हर जगह ,हर चीज पर.....कभी टिप टिप कभी टप टप और कभी छम छम... एक अजब सा जादू होता है इस में इसे सुनने का मजा ही कुछ और होता है कभी गौर से सुनिए इस संगीत को और इस खुशबु को समेट लीजिए अपने अंदर महसूस कीजिये इस जादू को सच....सबकुछ भूल जायेगे यहाँ तक कि खुद को भी.....

Friday, July 9, 2010

अगरचे मुझे तुमसे प्यार न होता

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हर सिम्त मेरा दिल ये बेकरार न होता

हमदम अगरचे मुझे तुमसे प्यार न होता

 

कल अजनबी थे आज एक जान होँ जैसे

दोनों की अब तो एक ही पहचान हो जैसे

इतना हसीन तब तो ये संसार न होता

हमदम अगरचे मुझे तुमसे प्यार न होता

मेरी निगाहों मे तेरी तस्वीर बसी है

तुम ही खुशी हमारी तुमसे ही हंसी है

यूँ सुबहो शाम तेरा इन्तजार न होता

हमदम अगरचे मुझे तुमसे प्यार न होता

तुम आये मोहोब्बत से कायनात भर गयी

महके हुए जज्बातों की दुनिया संवर गयी

बिन तेरे चमन दिल का गुलज़ार ना होता

हमदम अगरचे मुझे तुमसे प्यार न होता

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भूख का नजरिया (कहानी)

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मुझे सफ़र करना अच्छा नही लगता था मगर इस बार जब मयंक भइया.....माँ और पापा से मिलने दिल्ली से मेरठ आये तो मुझे भी अपने साथ दिल्ली चलने के लिए राजी कर लिया......वैसे तो दिल्ली से मेरठ की दूरी ज्यादा नहीं थी पर सफ़र मे मेरा जी मिचलाता है इस कारण ये तीन घंटे का सफ़र बहुत मुश्किल से कटा........भइया पिछले नौ साल से दिल्ली मे रह रहे थे...वो हर दूसरे तीसरे महीने माँ पापा और हम भाई बहनों से मिलने आजाते थे.....इस बार बच्चो के एग्जाम की वजह से वो अकेले ही आये थे और मुझे इमोशनली ब्लैकमेल कर के साथ चलने को राजी कर लिया था "छोटी !बच्चे तुम्हे बहुत याद कर रहे है"....."अपनी बुआ से मिलने के लिया बेताब है"वगैरा वगैरा......

मै भी उन दिनों फ्री थी और घर मे बोर हो रही थी इस लिए जल्दी से तैयार हो गई...दिल्ली पहुचते पहुचते रात हो गई......पार्थ और परी मुझे यूँ अचानक सामने देख कर खुशी से चहकने लगे भाभी भी बहुत खुश हुई.........दोनों बच्चे मेरे अगल बगल बैठे अपनी अपनी बात सुनाने लगे जैसे उनको मेरा ही इंतजार था

भाभी रात खाने कीं तैयारी करने मे लग गई....थोड़ी देर बाद भाभी मेरे पास आई और प्यार से बोली "चलो हमारी ना सही बच्चो की याद तुम्हे यहाँ खीच लाई "

"भाभी आप को तो पता है सफ़र मे मेरी क्या हालत होती है?"

"हाँ भई, तभी तो माँ कहती है की मै तो अपनी सुभी कि शादी अपने ही शहर मे करूंगी.....मेरी लाडो से सफ़र नही होता "

मै भाभी की बात पर मुस्कुराने लगी

"हाँ भई ,आज खाने का क्या प्रोग्राम है"तभी भइया नहा कर फ्रैश मूड मे कमरे मे आये

"खाना तैयार है मै लगाती हूँ"यह कह भाभी किचन मे आगई

भाभी ने खाने का अच्छा खासा अरेंजमेंट कर रखा था....."सुभी!अब बैठो भी खाना ठंडा हो रहा है"भाभी फ्रिज से कोल्ड ड्रिंक निकलते हुए बोली

"वाउ....चायनीज राईस मै चहकते हुए बोली "

"तुम्हे बहुत पसंद है न इस लिए ही बनाया है"भाभी बोली

अचानक मेरी नजर परी की तरफ गई जो राईस मे से सब्जियां निकाल निकाल कर दूसरी प्लेट में रख रही थी....भाभी ने भी परी को देखा

"ममा !मुझे चिकन पुलाव पसंद है ये वाले नही अच्छे लगते "

"अच्छा तुम ये मंचुरियन ले लो "भाभी ने परी की प्लेट मे मंचूरियन बाल्स डालते हुए कहा

"ममा! मिरिंडा भी दो "

"हाँ दे रही हूँ मेरी जान आप ये मंचूरियन तो खाओ"

मै चुप चाप अपनी प्लेट ले कर खाने लगी

"ममा! मझे नहीं खाना ये अच्छा नही है" परी को देख कर पार्थ ने भी अपना खाना आधा खाया छोड दिया और दोनों कोल्ड ड्रिंक्स पीने लगे हम सब खाना कहा कर टी वि देखने लाउंज मे आगये

भाभी बर्तन समेटने लगी तो मै उनके पास आगयी और उनकी मदद करने लगी

"भाभी खाना बहुत ही अच्छा था "मै बोली

"तुम्हारे भइया को तो मेरा बनाया कभी अच्छा ही नहीं लगता...शायद ही कभी तारीफ़ की हो " भाभी पार्थ और परी का बचा खाना डस्टबिन मे डालते हुए बोली

खाने की इस बेकद्री पर मै कुछ पल के लिए खामोश हो गई....मुझे हमारा बचपन याद आने लगा जब हम लोग खाने बैठते थे तो माँ हमे अन्न की कद्र करना सिखाती थी.......

माँ कहती थी "कि अन्न का एक भी दाना नही गिरना चाहिए नही तो अन्नपूर्णा देवी नाराज हो जाती है"

"पानी बर्बाद न करो, घर से बरकत चली जाती है".....अगर दरवाजे पर कोई भिखारी आ जाता तो वो अपने हिस्से की रोटी भी उसे ही दे देती

"सुभी!तुम जाकर आराम कर लो "मुझे चुप देख भाभी बोली

"नहीं भाभी! लाइए मै थोड़े से बर्तन धो देती हूँ "मैने चौक कर कहा

"अरे नही.....सुबह परवीन आकर धो लेगी आखिर तनख्वाह किस बात की लेती है "भाभी मुझे रोकते हुए बोली

"अरे उसने तो कम छोड दिया था क्या फिर से आने लगी "मैंने पूछा

"और नहीं तो क्या....जब घर मे फाकें शुरू हो गए तो दिमाग ठिकाने पर आगया, और फौरन काम पर वापस आगई 'भाभी बोली

"हाँ,पर वो कम बहुत साफ सुथरा करती है" मै बोली

"हाँ काम तो अच्छा करती है पर है पक्की फ्राड जब आती है तो दुखड़े सुनाने लगती है....कभी दूध नही तो कभी आटा खत्म होता है उसके घर मे.....कभी बच्चे भूखे होते है तो कभी वो खुद भूखी होती है ये लोग अपनी मक्कारी से बाज नही आते......मै तो महीने भर का सौदा भी उससे छुपा कर रखती हूँ "भाभी बोली

कुछ देर पहले भाभी ने पार्थ और परी के छोड़े हुए खाने को जिस तरह डस्टबिन के हवाले किया था....मुझे वो खाना किसी मजबूर,लाचार और गरीब की आह जैसा लगा जो किसी के पेट के बजाए डस्टबिन मे जा रहा था

अगले दिन सुबह जब मै उठी तो भाभी बच्चो जल्दी जल्दी नाश्ता कराने के साथ साथ लंच बाक्स तैयार कर रही थी

"गुड़ मोर्निग भाभीअन्न का अनादर "मै मुस्कुराते हुए बोली

"गुड़ मोर्निग...नींद तो ठीक से आई "भाभी बोली

"जी भाभी"मैंने मुस्कुरा कर कहा

भाभी ने बच्चो का लंच तैयार कर के उन के बैग मे रख दिया "बेटा जल्दी से नाशता खत्म करो तुम्हारी बस आने वाली है "भाभी बोली

परी दूध पी रही थी और पार्थ देसी घी से बने परांठे टुकड़े टुकड़े कर के कहा रहा था

"पार्थ तुमने फरमाइश कर के ये परांठे बनवाये थे अब नही खाया जा रहा"भाभी बोली

"ममा आप अच्छे परांठे नही बनती....दादी कितने अच्छा बनती है "पार्थ की चलाकी पर मै और भाभी मुस्कुरा दिए

तभी बस आगयी और बच्चे स्कुल चले गए मै और भाभी नाश्ता करने लगे जैसे ही हम नाश्ता कर के उठे परवीन भी आगयी

"क्या हाल है परवीन "मैंने कहा

"बीबी इस महगाई मे हम गरीबो का क्या हाल होना है,... इनकी तीन हजार की नौकरी थी फैक्ट्री में... लोहे का बुरादा फांकते फांकते ये हालत हो गयी कि दो महीने से चारपाई पकड़ी हुई है .... हमे तो एक वक्त की सूखी रोटी भी मिलजाए तो गनीमत है"

उसकी इस बात पर कोई तसल्ली, कोई दिलासा मेरे मुँह से नहीं निकला....सच के बहते धारे पर झूठ का पुल बांधना कब आसान होता है ?

"पीनू ! तेरे दुखड़े तो कयामत तक खत्म नहीं होंगे जल्दी से काम खत्म कर ले नहीं तो लाईट चली जायगी......जल्दी से बर्तन झाड़ू कर के मशीन लगा कर कपड़े भी धो ले मौसम भी खराब हो रहा है "भाभी बोली

"बीबी आप फ़िक्र ना करे अभी सब निपटा देती हूँ......बीबी अगर आप की इजाजत हो तो अपने लिए एक रोटी सेंक लूँ, कल रात से कुछ नहीं खाया.....खाली पेट बच्चे को दूध पिलाकर आई हूँ.....अब तो भूख से बुरा हाल है "उसने लाचारी से कहा

"बाते बनाना तो कोई तुमसे सीखे ख़ैर पका ले रोटी पर घी तेल मत छूना आज कल ना तो आटा सस्ता है ना ही घी तेल ये इतनी मेहनत करते है तब खर्चे पूरे होते है "ये कहते हुए भाभी बाहर निकल गई

मेरी नजरो मे कुछ देर पहले का मंजर घूम गया जब भाभी ने पार्थ के छोड़े परांठे को डस्टबिन के हवाले किया था.....क्या परवीन की रोटी उस परांठे पर इतनी भरी थी? कि मंहगाई के इतने रोने रो दिए गए थे मेरे होंठ खामोश थे पर मेरा जमीर मुझे झंझोड रहा था मेरा दिल अंदर से रो रहा था कैसे हम आज अन्न का अनादर कर रहे है..........मेरी नजरे बेहरकत परवीन पर जमी हुई थी जो रुखी सूखी रोटी पर अचार कि एक फांक रख कर खाने के बाद ऊपरवाले का शुक्र अदा कर रखी थी....

Friday, July 2, 2010

दर्दे दिल न था चाहत की कली खिली न थी

दर्दे दिल न था चाहत की कली खिली न थी
वो भी क्या दिन थे जब तुझसे मिली न थी

अश्क बहते है जब बेवफाई याद आती है
ये क्या हुआ मुझको पहले तो ऐसी न थी

लगता है की वो भी शर्मसार है खुद से
उसकी जफ़ा मेरी वफा से गहरी न थी

वक्त ही रहा होगा मेरा दुश्मने तकदीर
वरना किसी की बदुआ में वो तासीर न थी

एक तुमको ही न बना सके अपना
और तो जिंदगी में कोई कमी न थी

Posted via email from धड़कन