जो वादे किये थे तुमने उसे भुला दिया
मैंने जो खाई कसमे उसे निभाती चली गई
नहीं भूल पाई हूँ वो तेरे प्यार की गर्मी
वो नमी होठो की सांसो को महकती चली गई
चाहती तो तोड़ देती रस्मो की जंजीरों को
पर प्रीत की डोर में खुद को उलझती चली गई
अब क्या मै तुझसे वफाओ का जिक्र करू
मै दीवानी हो खुद को ही आजमाती चली गई
तुझसे बिछड कर मै भी जी ना पाऊँगी
पर हवाए मुझे हुक्मे जुदाई सुनती चली गई
Posted via email from धड़कन
दर्दभरा
ReplyDeleteभावपूर्ण!
ReplyDeleteवाह ! बहुत खुबसूरत !
ReplyDeleteखूबसूरत भाव.... बहुत खूब!
ReplyDeleteखूबसूरत भाव से सजी अच्छी रचना
ReplyDeleteगहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
ReplyDeletebhut khoob .
ReplyDeleteअब यहाँ मैं क्या कहूँ?
ReplyDeleteयहाँ तो बहुत से प्रशंसक पहले ही तारीफ़ कर गए हैं…
वन्दना के इन स्वरों में - एक स्वर मेरा मिला लो!
'हवाए मुझे हुक्मे जुदाई सुनती चली गई.' !
ReplyDeleteइन बेरहम हवाओं की न पूछ ग़ालिब.
ये जब चलती हैं तो सब रुक जाता है.