वक्त बड़ा जालिम है!इन्सान की जिन्दगी में कभी ऐसा वक्त भी आता है जब एक ही ठोकर में उसके सारे सुनहरे खाव्ब बिखर जाते है और वक्त ऐसा जख्म छोड़ जाता है जिसका कोई भी इलाज नहीं कर सकता,फिरहम सोचते है की काश हम कोई बेजान मूरत होते,जज्बात और एहसास से दूर होते,हमारी न कोई ख्वाहिस होती और न हीकोई आरजू................................
तपता
सहरा
हूँ
जल
रही
हूँ
मै
खुश्क
पत्तों
में
ढल
रही
हूँ
मै
खामोश हो तुम इक मुद्दत से
शब्-ए- तनहाइयाँ सह
रही
हूँ
मै
मेरी आँखों में है कोई जलजला
अश्कों
में
दिन रात बह
रही
हूँ
मै
दिल
पे
है
इश्के
शिकश्ताँ
भारी
और तेरी याद में जल रही हूँ मै
अच्छे शेर निकले हैं दिल से
ReplyDeleteगिरीश पंकज जी से पूर्ण सहमति !
ReplyDeleteजब शेर दिल से निकले तो तो अछे ही होते हैं. सचमुच में दिल के
ReplyDeleteगहरे में जगह बनाते हैं
मेरी आँखों में है कोई जलजला
ReplyDeleteअश्कों में दिन रात बह रही हूँ मै ..
आँखों का ये ज़लज़ला रौशनी ले जाता है कभी कभी ... लाजवाब शेर है ...
बेहतरीन गज़ल
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