Sunday, June 12, 2011



हिज्र की रात ये ढलती नहीं  क्यूँ
खिजां की रुत भी बदलती नहीं  क्यूँ

सहर, कहते हैं अगले मोड़ पर है
मगर ये रात फिर चलती नहीं क्यूँ

ख्वाब टूटे पलक में किरकते हैं
आंख शब भर मेरी लगती नहीं क्यूँ  

अभी देखो तो मिटटी में नमी है
कली दिल की मगर खिलती नहीं क्यूँ  
 
मीन हूँ और दरिया है लबालब
प्यास मेरी भला  बुझती नहीं क्यूँ    

13 comments:

  1. आज उपस्थित सब साधन हैं,
    सुख से फिर भी क्या अनबन है।

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  2. सहर, कहते हैं अगले मोड़ पर है
    मगर ये रात फिर चलती नहीं क्यूँ...

    बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..हरेक शेर बहुत उम्दा..

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  3. बहुत खूबसुरत रचना| धन्यवाद|

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  4. बहुत खूब शानदार ग़ज़ल है अनु जी......आखिरी वाला शेर तो कमाल का है.....

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  5. आपके ग़ज़ल पढ़ी...बहुत सुन्दर लिखा है...लिखते रहिये...

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  6. शानदार ग़ज़ल अनु जी......

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  7. कुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
    इसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !

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  8. सहर, कहते हैं अगले मोड़ पर है
    मगर ये रात फिर चलती नहीं क्यूँ

    gazal ka ye tukda bahut pasand aaya
    or haan aapke blog ke sath sath aapka naam bhi bahut sundar hai ..itni sare khoobsurat or dilkash pahluon par hamari bandhaii or shubhkamnayen ..swikar karen

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  9. आप सब का बहुत बहुत आभार.... स्नेह बनाए रखें

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  10. सहर, कहते हैं अगले मोड़ पर है
    मगर ये रात फिर चलती नहीं क्यूँ

    बेहद खूबसूरत गज़ल ।

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  11. "meen hoon aur dariya hai labalab,pyas meri bhala bujhti kiyon nahi" wah! bahut khoob.kis tareh ki majboori ka aehsas karwaya hai aapne.dil khush ho gaya.

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