Wednesday, July 28, 2010

दिल की तासीर बड़ी अजब सी पाई मैंने


 

 

 

 

 

 

 

  

 

 

स्याह जुल्फों से शब् ए बज्म सजाई मैंने 

आइये पलकों की कालीन बिछाई मैंने 

रंग-चाहत, पैरहन-वफ़ा, तड़प की सीरत   

दिल की तासीर बड़ी अजब सी पाई मैंने 

शब् खयालात में जलते रहे एहसास कई 

सुबहो तक शम्मा तलक भी न जलाई मैंने

 पुर सुकूं नैन, खम ए ज़ुल्फ़, महकती आगोश 

उलझ के इनमे जिंदगी सुलझाई मैंने

5 comments:

  1. शब् खयालात में जलते रहे एहसास कई
    सुबहो तक शम्मा तलक भी न जलाई मैंने


    पुर सुकूं नैन, खम ए ज़ुल्फ़, महकती आगोश
    उलझ के इनमे जिंदगी सुलझाई मैंने

    खूबसूरत अश'आर .... बहुत खूब

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  2. कभी कभी उलझन बढ़ती ही है सुलझने के लिये।

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  3. बहुत सुन्दर क़लाम! इतनी परिपक्वता भरी शायरी की अभी उम्मीद न थी, इसलिए और भी अच्छा लग रहा है। ज़रूर लिखती रहिए। बहुत बढ़िया - बहुत अच्छे!

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  4. "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

    बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है

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  5. पुर सुकूं नैन, खम ए ज़ुल्फ़, महकती आगोश
    उलझ के इनमे जिंदगी सुलझाई मैंने

    ,,,,,बहुत खुब.

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