हिज्र की रात ये ढलती नहीं क्यूँ
खिजां की रुत भी बदलती नहीं क्यूँ
सहर, कहते हैं अगले मोड़ पर है
मगर ये रात फिर चलती नहीं क्यूँ
ख्वाब टूटे पलक में किरकते हैं
आंख शब भर मेरी लगती नहीं क्यूँ
अभी देखो तो मिटटी में नमी है
कली दिल की मगर खिलती नहीं क्यूँ
मीन हूँ और दरिया है लबालब
प्यास मेरी भला बुझती नहीं क्यूँ